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by-Ravindra Sikarwar

बेंगलुरु/सिलिकॉन वैली: सिलिकॉन वैली में भारतीय मूल के टैकी सोहम पारेख (Soham Parekh) इन दिनों काफी चर्चा में हैं, लेकिन अच्छे कारणों से नहीं। उन पर कई स्टार्टअप्स में एक साथ ‘मूनलाइटिंग’ (एक से अधिक जगह काम करना) करने का आरोप है, जिसने उन्हें तकनीकी समुदाय में, यहाँ तक कि लिंक्डइन के सीईओ का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया है और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर तीखी बहस छेड़ दी है।

क्या है सोहम पारेख का मामला?
सोहम पारेख, एक भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं, जो कथित तौर पर कई अमेरिकी स्टार्टअप्स में एक ही समय में काम कर रहे थे। ‘मूनलाइटिंग’ का मतलब है कि कोई व्यक्ति अपनी प्राथमिक नौकरी के अलावा, बिना कंपनी को बताए, किसी और जगह भी काम करे। यह आमतौर पर कॉन्ट्रैक्ट वर्क या फ्रीलांसिंग के रूप में होता है, लेकिन सोहम के मामले में आरोप है कि वह पूर्णकालिक (full-time) भूमिकाओं में कई कंपनियों में एक साथ काम कर रहे थे।

यह मामला सबसे पहले सोशल मीडिया पर तब सामने आया जब कुछ लोगों ने सोहम के लिंक्डइन प्रोफाइल और उनके कथित काम के घंटों में विसंगतियों को उजागर किया। आरोप है कि वह एक ही समय में कई कंपनियों के लिए काम कर रहे थे, और इससे उनके प्रदर्शन और नैतिक आचरण पर सवाल उठे। यह मुद्दा तब और गरमा गया जब लिंक्डइन के सीईओ ने भी इस मामले पर अप्रत्यक्ष रूप से टिप्पणी की।

लिंक्डइन सीईओ की टिप्पणी और ऑनलाइन बहस:
इस मामले ने लिंक्डइन के सीईओ रयान रॉसलेन्स्की (Ryan Roslansky) का ध्यान आकर्षित किया। हालाँकि, उन्होंने सीधे तौर पर सोहम पारेख का नाम नहीं लिया, लेकिन उन्होंने अपने प्लेटफॉर्म पर ‘मूनलाइटिंग’ और नौकरी की पारदर्शिता के महत्व पर एक पोस्ट साझा की। उन्होंने संकेत दिया कि लिंक्डइन एक ऐसे प्लेटफॉर्म के रूप में काम करता है जहाँ पेशेवर अपनी करियर यात्रा को सच्चाई से दर्शाते हैं, और पारदर्शिता बनाए रखना महत्वपूर्ण है। उनकी इस टिप्पणी को सोहम पारेख के मामले से जोड़कर देखा गया, जिससे यह मामला और भी ज्यादा सुर्खियों में आ गया।

रॉसलेन्स्की की टिप्पणी के बाद, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स, खासकर लिंक्डइन और एक्स (पहले ट्विटर) पर इस मुद्दे पर जोरदार बहस छिड़ गई। बहस के मुख्य बिंदु थे:

  • नैतिकता बनाम अवसर: कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि कई नौकरियों में एक साथ काम करना अनैतिक है और यह कंपनियों के प्रति बेवफाई है, खासकर जब यह छिपाकर किया जाता है। उनका मानना है कि इससे काम की गुणवत्ता प्रभावित होती है और कंपनी के बौद्धिक संपदा (intellectual property) का दुरुपयोग भी हो सकता है।
  • कर्मचारी का अधिकार: वहीं, कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि अगर कोई कर्मचारी अपने काम को प्रभावी ढंग से पूरा कर रहा है, तो उसे अतिरिक्त आय अर्जित करने से नहीं रोका जाना चाहिए, खासकर अगर उसके अनुबंध में स्पष्ट रूप से ‘मूनलाइटिंग’ पर प्रतिबंध न हो। उनका तर्क है कि यह कर्मचारियों का व्यक्तिगत चुनाव और अधिकार है, खासकर जब आर्थिक अनिश्चितता हो।
  • प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग: यह मामला इस बात पर भी बहस छेड़ता है कि कैसे रिमोट वर्क और डिजिटल टूल्स का उपयोग करके लोग कई भूमिकाओं को एक साथ निभा सकते हैं, और कैसे कंपनियां ऐसे मामलों का पता लगा सकती हैं।

भारतीय टैकी और ‘मूनलाइटिंग’ की प्रवृत्ति:
भारत में भी ‘मूनलाइटिंग’ को लेकर बहस कोई नई नहीं है, खासकर कोविड-19 महामारी के बाद जब रिमोट वर्क का चलन बढ़ा। विप्रो (Wipro) जैसी कुछ भारतीय आईटी कंपनियों ने ‘मूनलाइटिंग’ करने वाले कर्मचारियों को बर्खास्त भी किया है, जबकि कुछ अन्य कंपनियां इसे एक ग्रे एरिया (स्पष्ट न होने वाला क्षेत्र) मानती हैं और कुछ हद तक लचीलापन दिखाती हैं।

सोहम पारेख का मामला इस बात को उजागर करता है कि वैश्विक स्तर पर भी कंपनियां ‘मूनलाइटिंग’ को कितनी गंभीरता से ले रही हैं। सिलिकॉन वैली में, जहाँ स्टार्टअप संस्कृति और तीव्र प्रतिस्पर्धा है, कर्मचारियों से अक्सर अपने काम के प्रति पूरी निष्ठा और प्रतिबद्धता की उम्मीद की जाती है।

आगे क्या?
सोहम पारेख के खिलाफ कंपनियों द्वारा क्या कानूनी या अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। हालाँकि, यह मामला निश्चित रूप से भविष्य में कंपनियों की नीतियों को प्रभावित करेगा और रोजगार अनुबंधों में ‘मूनलाइटिंग’ से संबंधित खंडों को और अधिक स्पष्ट किया जाएगा। यह तकनीकी पेशेवरों के लिए भी एक सबक है कि उन्हें अपनी पेशेवर नैतिकता और पारदर्शिता पर ध्यान देना चाहिए ताकि उनके करियर पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े।

यह मामला सिलिकॉन वैली में काम की संस्कृति और डिजिटल युग में रोजगार के बदलते स्वरूप पर चल रही व्यापक बहस का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है।

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