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BY: Yoganand Shrivastva


90 किलोमीटर की दर्दभरी यात्रा, थैली में लिपटा मासूम का शव

महाराष्ट्र के पालघर जिले से मानवता को झकझोर देने वाला मामला सामने आया है, जो सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की वास्तविक स्थिति पर गंभीर सवाल उठाता है। एक गरीब आदिवासी मजदूर को अपनी मृत नवजात बच्ची का शव प्लास्टिक की थैली में लपेटकर बस में ले जाना पड़ा क्योंकि अस्पताल ने एंबुलेंस देने से इनकार कर दिया।


न अस्पताल की सहायता, न संवेदनशीलता

पालघर जिले के जोगलवाड़ी गांव के निवासी सखरम कावर, जो कटकारी जनजाति से आते हैं, ने बताया कि उनकी पत्नी को प्रसव पीड़ा होने पर सरकारी एंबुलेंस उपलब्ध नहीं कराई गई। कई छोटे-बड़े अस्पतालों के चक्कर काटने के बाद, 12 जून की रात को नासिक के सरकारी अस्पताल में बच्ची मृत जन्मी।

अगले दिन जब शव सौंपा गया, तो अस्पताल प्रशासन ने एंबुलेंस सुविधा देने से इनकार कर दिया। सखरम के पास निजी वाहन किराए पर लेने के पैसे नहीं थे, ऐसे में उन्हें मात्र 20 रुपये में एक प्लास्टिक थैली खरीदनी पड़ी, जिसमें बच्ची के शव को लपेटकर वह राज्य परिवहन की बस से 90 किलोमीटर दूर अपने गांव लौटे।


दिहाड़ी मजदूरों की मजबूरी और तंत्र की चुप्पी

सखरम और उनकी पत्नी अविता (26) ईंट-भट्ठे पर मजदूरी करते हैं और हाल ही में प्रसव के लिए अपने गांव लौटे थे। सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की लापरवाही ने पहले तो सुरक्षित प्रसव की उम्मीद को तोड़ा और बाद में अंतिम संस्कार के लिए शव ले जाने तक की सुविधा नहीं दी गई।


स्वास्थ्य विभाग की सफाई

जब यह मामला सार्वजनिक हुआ, तो स्वास्थ्य अधिकारियों ने बयान दिया कि सखरम ने खुद एंबुलेंस सेवा लेने से इनकार किया था, और अस्पताल ने उन्हें सभी आवश्यक सहायता दी। हालांकि, पीड़ित परिवार के अनुसार उन्हें किसी भी तरह की ठोस सहायता नहीं दी गई और पूरी प्रक्रिया में उन्हें तंत्र की बेरुखी का सामना करना पड़ा।


एक सवाल जो हर संवेदनशील नागरिक को झकझोरता है

इस घटना ने एक बार फिर ये साबित किया है कि गरीब और आदिवासी तबके के लिए सरकारी सिस्टम आज भी कितना असंवेदनशील बना हुआ है। सवाल ये नहीं है कि एंबुलेंस क्यों नहीं मिली, सवाल ये है कि आखिर कब तक आम जनता को अपने ही सिस्टम से इंसानियत की उम्मीद छोड़नी पड़ेगी?

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