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by-Ravindra Sikarwar

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के एक वरिष्ठ नेता ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble) से ‘समाजवादी’ (socialist) और ‘धर्मनिरपेक्ष’ (secular) शब्दों को हटाने पर एक राष्ट्रव्यापी बहस की मांग की है। उनका तर्क है कि ये दोनों शब्द संविधान के मूल मसौदे में शामिल नहीं थे, जिसे डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने तैयार किया था। इस बयान ने एक बार फिर देश में संविधान की मूल भावना और उसके संशोधनों को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है।

RSS नेता का तर्क:
RSS नेता के अनुसार, ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से आपातकाल के दौरान संविधान में जोड़े गए थे। उनका कहना है कि उस समय देश में एक तरह का दबावपूर्ण माहौल था और ये शब्द संविधान के मूल सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि डॉ. अंबेडकर और संविधान सभा के अन्य सदस्यों ने इन शब्दों को जानबूझकर संविधान में शामिल नहीं किया था, क्योंकि उनका मानना था कि भारत का स्वरूप पहले से ही सामाजिक और धार्मिक रूप से समावेशी है।

उन्होंने तर्क दिया कि इन शब्दों को हटा देने से भारत का लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष चरित्र कमजोर नहीं होगा, बल्कि यह संविधान के मूल दर्शन को फिर से स्थापित करेगा। उनका मानना है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द के गलत इस्तेमाल से तुष्टिकरण की राजनीति को बढ़ावा मिला है, जबकि भारतीय संस्कृति में ‘सर्वधर्म समभाव’ (सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान) का सिद्धांत पहले से ही मौजूद है। इसी तरह, ‘समाजवादी’ शब्द को लेकर उनका कहना है कि यह एक विशेष आर्थिक विचारधारा को थोपता है, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था को खुले बाजार के सिद्धांतों के आधार पर विकसित होना चाहिए।

संविधान और इन शब्दों का इतिहास:
यह जानना महत्वपूर्ण है कि संविधान की प्रस्तावना में ये शब्द कब और क्यों जोड़े गए थे।

  • 42वां संशोधन अधिनियम, 1976: इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान आपातकाल में, संविधान में यह संशोधन किया गया था। इस संशोधन को ‘लघु संविधान’ (Mini-Constitution) भी कहा जाता है, क्योंकि इसने संविधान के कई हिस्सों में बड़े बदलाव किए थे।
  • ‘समाजवादी’: इस शब्द को जोड़ने का उद्देश्य भारत को एक ऐसे राज्य के रूप में स्थापित करना था, जहाँ सामाजिक और आर्थिक असमानता को कम किया जाए और धन का वितरण समान रूप से हो।
  • ‘धर्मनिरपेक्ष’: इस शब्द को जोड़ने का उद्देश्य भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में परिभाषित करना था, जिसका कोई राजकीय धर्म न हो और जो सभी धर्मों को समान रूप से देखे और उनका सम्मान करे।

विपक्ष और संविधान विशेषज्ञों की राय:
RSS नेता के इस बयान का विपक्षी दलों और कई संविधान विशेषज्ञों ने कड़ा विरोध किया है। उनका कहना है कि ये दोनों शब्द भारतीय संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure) का हिस्सा हैं और इन्हें हटाना संविधान की आत्मा को चोट पहुँचाने जैसा होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने भी विभिन्न फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि संविधान की मूल भावना में बदलाव नहीं किया जा सकता।

विपक्ष का तर्क है कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भारतीय लोकतंत्र की सामूहिक चेतना और विविधता को दर्शाते हैं। ये शब्द भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में स्थापित करते हैं, जो सामाजिक न्याय और धार्मिक सद्भाव के प्रति प्रतिबद्ध है। उनका मानना है कि इन शब्दों को हटाना देश के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर सकता है।

यह बहस अब आने वाले समय में और भी तेज हो सकती है, क्योंकि यह सीधे तौर पर भारतीय राजनीति और समाज के मूल सिद्धांतों से जुड़ी हुई है।

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